Sunday 22 October 2023
चार धाम यात्रा ,बद्रीनाथ (चतुर्थ धाम ) 5
चार धाम यात्रा,बद्रीनाथ (चतुर्थ धाम ) 5
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चार धाम यात्रा का अब अंतिम पड़ाव चौथा धाम बद्रीनाथ यात्रा की तैयारी शुरू हो गई ।केदारनाथ यात्रा के बाद रात्रि विश्राम करके हम 17/10/23 की सुबह भोजन करके लगभग दस बजे रवाना हो गये ।हमारा अगला पड़ाव बद्रीनाथ मार्ग पर स्थित पीपलकोटी से कुछ पहले मायापुर में लक्ष्मी नारायण लॉज पर हमें पहुँचाना था ।यहाँ रात्रि विश्राम करने के बाद 18/10 की सुबह हम बद्रीनाथ के लिए रवाना हो गये ।बद्रीनाथ तक बस द्वारा पहुँच जा सकता है ।यहाँ पर केदारनाथ की तरह पैदल लम्बा मार्ग नहीं है ।लगभग आधा किलोमीटर पैदल चलाने पर ही मन्दिर तक पहुँच जा सकता है ।रुद्रप्रयाग से बद्रीनाथ तक की सड़क में प्रारंभिक कुछ मार्ग को छोड़कर शेष सड़क अच्छी और चौड़ी थी ।कुछ दूर भागीरथी फिर अलकनंदा नदी के किनारे ही सड़क मार्ग है ।कहीं रास्ते में चढ़ाई तो कहीं ढलान आता है । बद्रीनाथ की समुद्र तल से ऊँचाई 3583 मीटर(11105 फीट) है ।यहाँ पर केदारनाथ से भी अधिक ठंड रहती है ।आज दिन का तापमान यहाँ (-6) digri celsius है ।लेकिन धूप अच्छी निकली हुई है और मौसम आज ठीक है ।
बद्रीनाथ ,भगवान विष्णु का स्वरूप है एवं यह स्वयं प्रकट मूर्ति मानी जाती है बद्रीनाथ के विषय में कहा जाता है कि ब्रह्माजी के दो बेटे थे। उनमें से एक का नाम था दक्ष। दक्ष की सोलह बेटियां थी। उनमें से तेरह का विवाह धर्मराज से हुआ था। उनमें एक का नाम था श्रीमूर्ति। उनके दो बेटे थे, नर और नारायण। दोनों बहुत ही भले, एक-दूसरे से कभी अलग नहीं होते थे। नर छोटे थे। वे एक-दूसरे को बहुत चाहते थे। अपनी मां को भी बहुत प्यार करते थे। एक बार दोनों ने अपनी मां की बड़ी सेवा की। माँ खुशी से फूल उठी। बोली, ‘‘मेरे प्यारे बेटा, मैं तुमसे बहुत खुश हूं। बोलो, क्या चाहते हो ? जो मांगोगे वही दूंगी।’’
दोनों ने कहा, ‘‘माँ, हम वन में जाकर तप करना चाहतें है। आप अगर सचमुच कुछ देना चाहती हो, तो यह वर दो कि हम सदा तप करते रहे।’’
बेटों की बात सुनकर मां को बहुत दुख हुआ। अब उसके बेटे उससे बिछुड़ जायंगें। पर वे वचन दे चुकी थीं। उनको रोक नहीं सकती थीं। इसलिए वर देना पड़ा। वर पाकर दोनों भाई तप करने चले गये। वे सारे देश के वनों में घूमने लगे। घूमते-घूमते हिमालय पहाड़ के वनों में पहुंचे।
इसी वन में अलकनन्दा के दोनों किनारों पर दों पहाड़ है। दाहिनी ओर वाले पहाड़ पर नारायण तप करने लगे। बाई और वाले पर नर। आज भी इन दोनों पहाड़ों के यही नाम है। यहां बैठकर दोनों ने भारी तप किया, इतना कि देवलोक का राजा डर गया। उसने उनके तप को भंग करने की बड़ी कोशिश की, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। तब उसे याद आया कि नर-नारायण साधारण मुनि नहीं है, भगवान का अवतार है। कहते है, कलियुग के आने तक वे वहीं तप करते रहें। आखिर कलियुग के आने का समय हुआ। तब वे अर्जुन और कृष्ण का अवतार लेने के लिए बदरी-वन से चले। उस समय भगवान ने दूसरे मुनियों से कहा, ‘‘मैं अब इस रूप में यहां नहीं रहूंगा। नारद शिला के नीचे मेरी एक मूर्ति है, उसे निकाल लो और यहां एक मन्दिर बनाओं आज से उसी की पूजा करना।
नारद ने भगवान की बहुत सेवा की थी। उनके नाम पर शिला और कुण्ड़ दोनों है। कहते हैं कि प्रह्लाद के पिता हृण्यकश्यप को मारकर जब नृसिंह भगवान क्रोध से भरे फिर रहे थे तब यहीं आकर उनका आवेश शान्त हुआ था। नृसिंह-शिला भी वहां मौजूद है। ब्रह्म-कपाली पर पिण्डदान किया जाता है। दो मील आगे भारत का प्रथम गांव ‘माणा’है।पांच किलोमीटर दूर वसुधारा है। वसुधारा दो सौ फुट से गिरने वाला झरना है। आगे शतपथ, स्वर्ग-द्वार और अलकापुरी है। फिर तिब्बत का देश है। उस वन में तीर्थ-ही-तीर्थ है। सारी भूमि तपोभूमि है। वहां पर गरम पानी का भी एक कुण्ड है। इतना गरम पानी है कि एकाएक पैर दो तो जल जाय। यह ठीक अलकनन्दा के किनारे है जबकि अलकनन्दा का पानी बहुत ही ठंडा है ।बद्रीनाथ चार धाम में से एक है ।यहाँ का मन्दिर आठवीं सदी से भी पूर्व का माना जाता है ।इसके कपाट भी केवल अक्षय तृतीया से दीपावली के दो दिन बाद तक ही खुलते हैं।
इस मन्दिर को बद्री-विशाल के नाम से भी पुकारते हैं और विष्णु को ही समर्पित निकटस्थ चार अन्य मन्दिरों – योगध्यान-बद्री, भविष्य-बद्री, वृद्ध-बद्री और आदि बद्री के साथ जोड़कर पूरे समूह को "पंच-बद्री" के रूप में जाना जाता है। बद्रीनाथ नाम की उत्पत्ति पर एक अन्य कथा भी प्रचलित है, जो इस प्रकार है -नारद जी एक बार भगवान् विष्णु के दर्शन हेतु क्षीरसागर पधारे, जहाँ उन्होंने माता लक्ष्मी को उनके पैर दबाते देखा। चकित नारद ने जब भगवान से इसके बारे में पूछा, तो अपराधबोध से ग्रसित भगवान विष्णु तपस्या करने के लिए हिमालय को चल दिए।जब भगवान विष्णु तपस्या में लीन थे तो बहुत अधिक बर्फ पड़ने लगी ।भगवान विष्णु हिम में पूरी तरह डूब चुके थे। उनकी इस दशा को देख कर माता लक्ष्मी का हृदय द्रवित हो उठा और उन्होंने स्वयं भगवान विष्णु के समीप खड़े हो कर एक बद्री के वृक्ष का रूप ले लिया और समस्त हिम को अपने ऊपर सहने लगीं।माता लक्ष्मीजी भगवान विष्णु को धूप, वर्षा और हिम से बचाने की कठोर तपस्या में जुट गयीं। कई वर्षों बाद जब भगवान विष्णु ने अपना तप पूर्ण किया तो देखा कि लक्ष्मीजी हिम से ढकी पड़ी हैं। तो उन्होंने माता लक्ष्मी के तप को देख कर कहा कि "हे देवी ! तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है सो आज से इस धाम पर मुझे तुम्हारे ही साथ पूजा जायेगा और क्योंकि तुमने मेरी रक्षा बद्री वृक्ष के रूप में की है सो आज से मुझे बद्री के नाथ-बद्रीनाथ के नाम से जाना जायेगा।"
बद्रीनाथ पहुँच कर हम जैसे ही मन्दिर की और बढ़े तो हमें तेज सर्दी काअहसास होने लगा ।अलकनंदा के उस पार पुल द्वारा हम पहुँचे तो वहाँ पर नारद कुण्ड (तप्त कुण्ड) जिससे तेज गर्म भाप निकल रही थी ,उससे सभी को स्नान करना था ।महिलाओं और पुरुषों के लिये अलग अलग स्थान है ।हमने जैसे ही स्नान लिए कुण्ड के पानी को हाथ लगाया तो लगा जैसे इस पानी से हाथ ही जल जाएगा ।बहुत साहस कर पहले किनारे पर बैठ कर थोड़ा थोड़ा पानी शरीर पर डाला फिर जल्दी से कुण्ड में अंदर जाकर तुरन्त बाहर आ गये।पानी इतना गर्म था कि उससे अधिक देर तक रुकना संभव नहीं है ।स्नान के बाद हमने पितरों का तर्पण के लिए एक पंडित से पूजा कराई और फिर मंदिर में दर्शन के लिये गये ।मंदिर में अंदर गर्भगृह में पहुँचते ही भगवान बद्रीनाथ की अद्भुत छटा के दर्शन हुए ।मन होता है कि बस यहीं खड़े रह कर निहारते रहो ।लेकिन अढ़ाई देर तक रुकना संभव नहीं था ।बाहर निकलकर मुख्यद्वार से एक बार फिर से दर्शन किए ।अंदर परिसर में हनुमान ,लक्ष्मी जी, अन्य प्रतिमाएँ भी लगी थी । एक तरफ़ वहाँ आये दान के रुपयों की गिनती भी हो रही थी ।अब दर्शन के बाद हम वापस बस में बैठे और भोजन किया । पास ही माणा गाँव जो कि प्रथम गाँव भी कहलाता है वहाँ जाकर गणेश गुफा ,सरस्वती मंदिर ,माँ सरस्वस्ती नदी का उद्गम के साथ ही लुप्त होने का स्थान भी देखा । एक विशाल चट्टान जिसे भीम पुल भी कहते हैं नदी पर रखी थी । कहते हैं नदी पार करने के लिये भीम ने इस विशाल चट्टान को रखा जिसने पुल का काम किया ।आगे वसुधारा और स्वर्ग की सीढ़ियाँ भी बताई हैं हम वहाँ नहीं गये ।भीम पुल के पास ही चाय नाश्ते की दुकांभी थी जिसपर लिखा था हिंदुस्तान कि पहली दुकान ।कुछ लोगों इस दुकान पर चाय पी और फ़ोटो भी खिंचाई ।अब यहाँसे वापस बस पर आगे ।शाम तक हम अपने रात्रि विश्राम स्थल लक्ष्मीनारायण लॉज मायपुर ( पीपल कोटी) आ गये ।अब रात्रि विश्राम के बाद 19/10/23 को हम वापस हरिद्वार की और चल दिये ।प्रकृति की अनुपम छटा से दूर जाने का अब समय आ गया ।ऊँचे ऊँचे पर्वत ,चारों ओर हरियाली और देवदार के वृक्षों के साथ मीठे निर्मल ,शीतल जल के झरनों वाली इस देवभूमि को प्रणाम कर अब फिर से हम वापस हरिद्वार की ओर चल दिये । यहाँ से कुछ जयपुर की तरफ़ तो कुछ कोटा जाएँगे । मैं ऋषिकेश तक ही अन्य के साथ रहा । दो दिन देहरादून बड़े भाईसाहब के पास रुककर 21/10/23 को कोटा के लिए रवाना जिया । वास्तव में इस यात्रा की मीठी स्मृति चिरकाल तक रहेगी ।
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