Sunday 22 October 2023
चार धाम यात्रा ,बद्रीनाथ (चतुर्थ धाम ) 5
चार धाम यात्रा,बद्रीनाथ (चतुर्थ धाम ) 5
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चार धाम यात्रा का अब अंतिम पड़ाव चौथा धाम बद्रीनाथ यात्रा की तैयारी शुरू हो गई ।केदारनाथ यात्रा के बाद रात्रि विश्राम करके हम 17/10/23 की सुबह भोजन करके लगभग दस बजे रवाना हो गये ।हमारा अगला पड़ाव बद्रीनाथ मार्ग पर स्थित पीपलकोटी से कुछ पहले मायापुर में लक्ष्मी नारायण लॉज पर हमें पहुँचाना था ।यहाँ रात्रि विश्राम करने के बाद 18/10 की सुबह हम बद्रीनाथ के लिए रवाना हो गये ।बद्रीनाथ तक बस द्वारा पहुँच जा सकता है ।यहाँ पर केदारनाथ की तरह पैदल लम्बा मार्ग नहीं है ।लगभग आधा किलोमीटर पैदल चलाने पर ही मन्दिर तक पहुँच जा सकता है ।रुद्रप्रयाग से बद्रीनाथ तक की सड़क में प्रारंभिक कुछ मार्ग को छोड़कर शेष सड़क अच्छी और चौड़ी थी ।कुछ दूर भागीरथी फिर अलकनंदा नदी के किनारे ही सड़क मार्ग है ।कहीं रास्ते में चढ़ाई तो कहीं ढलान आता है । बद्रीनाथ की समुद्र तल से ऊँचाई 3583 मीटर(11105 फीट) है ।यहाँ पर केदारनाथ से भी अधिक ठंड रहती है ।आज दिन का तापमान यहाँ (-6) digri celsius है ।लेकिन धूप अच्छी निकली हुई है और मौसम आज ठीक है ।
बद्रीनाथ ,भगवान विष्णु का स्वरूप है एवं यह स्वयं प्रकट मूर्ति मानी जाती है बद्रीनाथ के विषय में कहा जाता है कि ब्रह्माजी के दो बेटे थे। उनमें से एक का नाम था दक्ष। दक्ष की सोलह बेटियां थी। उनमें से तेरह का विवाह धर्मराज से हुआ था। उनमें एक का नाम था श्रीमूर्ति। उनके दो बेटे थे, नर और नारायण। दोनों बहुत ही भले, एक-दूसरे से कभी अलग नहीं होते थे। नर छोटे थे। वे एक-दूसरे को बहुत चाहते थे। अपनी मां को भी बहुत प्यार करते थे। एक बार दोनों ने अपनी मां की बड़ी सेवा की। माँ खुशी से फूल उठी। बोली, ‘‘मेरे प्यारे बेटा, मैं तुमसे बहुत खुश हूं। बोलो, क्या चाहते हो ? जो मांगोगे वही दूंगी।’’
दोनों ने कहा, ‘‘माँ, हम वन में जाकर तप करना चाहतें है। आप अगर सचमुच कुछ देना चाहती हो, तो यह वर दो कि हम सदा तप करते रहे।’’
बेटों की बात सुनकर मां को बहुत दुख हुआ। अब उसके बेटे उससे बिछुड़ जायंगें। पर वे वचन दे चुकी थीं। उनको रोक नहीं सकती थीं। इसलिए वर देना पड़ा। वर पाकर दोनों भाई तप करने चले गये। वे सारे देश के वनों में घूमने लगे। घूमते-घूमते हिमालय पहाड़ के वनों में पहुंचे।
इसी वन में अलकनन्दा के दोनों किनारों पर दों पहाड़ है। दाहिनी ओर वाले पहाड़ पर नारायण तप करने लगे। बाई और वाले पर नर। आज भी इन दोनों पहाड़ों के यही नाम है। यहां बैठकर दोनों ने भारी तप किया, इतना कि देवलोक का राजा डर गया। उसने उनके तप को भंग करने की बड़ी कोशिश की, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। तब उसे याद आया कि नर-नारायण साधारण मुनि नहीं है, भगवान का अवतार है। कहते है, कलियुग के आने तक वे वहीं तप करते रहें। आखिर कलियुग के आने का समय हुआ। तब वे अर्जुन और कृष्ण का अवतार लेने के लिए बदरी-वन से चले। उस समय भगवान ने दूसरे मुनियों से कहा, ‘‘मैं अब इस रूप में यहां नहीं रहूंगा। नारद शिला के नीचे मेरी एक मूर्ति है, उसे निकाल लो और यहां एक मन्दिर बनाओं आज से उसी की पूजा करना।
नारद ने भगवान की बहुत सेवा की थी। उनके नाम पर शिला और कुण्ड़ दोनों है। कहते हैं कि प्रह्लाद के पिता हृण्यकश्यप को मारकर जब नृसिंह भगवान क्रोध से भरे फिर रहे थे तब यहीं आकर उनका आवेश शान्त हुआ था। नृसिंह-शिला भी वहां मौजूद है। ब्रह्म-कपाली पर पिण्डदान किया जाता है। दो मील आगे भारत का प्रथम गांव ‘माणा’है।पांच किलोमीटर दूर वसुधारा है। वसुधारा दो सौ फुट से गिरने वाला झरना है। आगे शतपथ, स्वर्ग-द्वार और अलकापुरी है। फिर तिब्बत का देश है। उस वन में तीर्थ-ही-तीर्थ है। सारी भूमि तपोभूमि है। वहां पर गरम पानी का भी एक कुण्ड है। इतना गरम पानी है कि एकाएक पैर दो तो जल जाय। यह ठीक अलकनन्दा के किनारे है जबकि अलकनन्दा का पानी बहुत ही ठंडा है ।बद्रीनाथ चार धाम में से एक है ।यहाँ का मन्दिर आठवीं सदी से भी पूर्व का माना जाता है ।इसके कपाट भी केवल अक्षय तृतीया से दीपावली के दो दिन बाद तक ही खुलते हैं।
इस मन्दिर को बद्री-विशाल के नाम से भी पुकारते हैं और विष्णु को ही समर्पित निकटस्थ चार अन्य मन्दिरों – योगध्यान-बद्री, भविष्य-बद्री, वृद्ध-बद्री और आदि बद्री के साथ जोड़कर पूरे समूह को "पंच-बद्री" के रूप में जाना जाता है। बद्रीनाथ नाम की उत्पत्ति पर एक अन्य कथा भी प्रचलित है, जो इस प्रकार है -नारद जी एक बार भगवान् विष्णु के दर्शन हेतु क्षीरसागर पधारे, जहाँ उन्होंने माता लक्ष्मी को उनके पैर दबाते देखा। चकित नारद ने जब भगवान से इसके बारे में पूछा, तो अपराधबोध से ग्रसित भगवान विष्णु तपस्या करने के लिए हिमालय को चल दिए।जब भगवान विष्णु तपस्या में लीन थे तो बहुत अधिक बर्फ पड़ने लगी ।भगवान विष्णु हिम में पूरी तरह डूब चुके थे। उनकी इस दशा को देख कर माता लक्ष्मी का हृदय द्रवित हो उठा और उन्होंने स्वयं भगवान विष्णु के समीप खड़े हो कर एक बद्री के वृक्ष का रूप ले लिया और समस्त हिम को अपने ऊपर सहने लगीं।माता लक्ष्मीजी भगवान विष्णु को धूप, वर्षा और हिम से बचाने की कठोर तपस्या में जुट गयीं। कई वर्षों बाद जब भगवान विष्णु ने अपना तप पूर्ण किया तो देखा कि लक्ष्मीजी हिम से ढकी पड़ी हैं। तो उन्होंने माता लक्ष्मी के तप को देख कर कहा कि "हे देवी ! तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है सो आज से इस धाम पर मुझे तुम्हारे ही साथ पूजा जायेगा और क्योंकि तुमने मेरी रक्षा बद्री वृक्ष के रूप में की है सो आज से मुझे बद्री के नाथ-बद्रीनाथ के नाम से जाना जायेगा।"
बद्रीनाथ पहुँच कर हम जैसे ही मन्दिर की और बढ़े तो हमें तेज सर्दी काअहसास होने लगा ।अलकनंदा के उस पार पुल द्वारा हम पहुँचे तो वहाँ पर नारद कुण्ड (तप्त कुण्ड) जिससे तेज गर्म भाप निकल रही थी ,उससे सभी को स्नान करना था ।महिलाओं और पुरुषों के लिये अलग अलग स्थान है ।हमने जैसे ही स्नान लिए कुण्ड के पानी को हाथ लगाया तो लगा जैसे इस पानी से हाथ ही जल जाएगा ।बहुत साहस कर पहले किनारे पर बैठ कर थोड़ा थोड़ा पानी शरीर पर डाला फिर जल्दी से कुण्ड में अंदर जाकर तुरन्त बाहर आ गये।पानी इतना गर्म था कि उससे अधिक देर तक रुकना संभव नहीं है ।स्नान के बाद हमने पितरों का तर्पण के लिए एक पंडित से पूजा कराई और फिर मंदिर में दर्शन के लिये गये ।मंदिर में अंदर गर्भगृह में पहुँचते ही भगवान बद्रीनाथ की अद्भुत छटा के दर्शन हुए ।मन होता है कि बस यहीं खड़े रह कर निहारते रहो ।लेकिन अढ़ाई देर तक रुकना संभव नहीं था ।बाहर निकलकर मुख्यद्वार से एक बार फिर से दर्शन किए ।अंदर परिसर में हनुमान ,लक्ष्मी जी, अन्य प्रतिमाएँ भी लगी थी । एक तरफ़ वहाँ आये दान के रुपयों की गिनती भी हो रही थी ।अब दर्शन के बाद हम वापस बस में बैठे और भोजन किया । पास ही माणा गाँव जो कि प्रथम गाँव भी कहलाता है वहाँ जाकर गणेश गुफा ,सरस्वती मंदिर ,माँ सरस्वस्ती नदी का उद्गम के साथ ही लुप्त होने का स्थान भी देखा । एक विशाल चट्टान जिसे भीम पुल भी कहते हैं नदी पर रखी थी । कहते हैं नदी पार करने के लिये भीम ने इस विशाल चट्टान को रखा जिसने पुल का काम किया ।आगे वसुधारा और स्वर्ग की सीढ़ियाँ भी बताई हैं हम वहाँ नहीं गये ।भीम पुल के पास ही चाय नाश्ते की दुकांभी थी जिसपर लिखा था हिंदुस्तान कि पहली दुकान ।कुछ लोगों इस दुकान पर चाय पी और फ़ोटो भी खिंचाई ।अब यहाँसे वापस बस पर आगे ।शाम तक हम अपने रात्रि विश्राम स्थल लक्ष्मीनारायण लॉज मायपुर ( पीपल कोटी) आ गये ।अब रात्रि विश्राम के बाद 19/10/23 को हम वापस हरिद्वार की और चल दिये ।प्रकृति की अनुपम छटा से दूर जाने का अब समय आ गया ।ऊँचे ऊँचे पर्वत ,चारों ओर हरियाली और देवदार के वृक्षों के साथ मीठे निर्मल ,शीतल जल के झरनों वाली इस देवभूमि को प्रणाम कर अब फिर से हम वापस हरिद्वार की ओर चल दिये । यहाँ से कुछ जयपुर की तरफ़ तो कुछ कोटा जाएँगे । मैं ऋषिकेश तक ही अन्य के साथ रहा । दो दिन देहरादून बड़े भाईसाहब के पास रुककर 21/10/23 को कोटा के लिए रवाना जिया । वास्तव में इस यात्रा की मीठी स्मृति चिरकाल तक रहेगी ।
Friday 20 October 2023
चार धाम यात्रा (केदार नाथ ) 4
केदारनाथ यात्रा (तृतीय धाम )4
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गंगोत्री के बाद अब केदार नाथ यात्रा की तैयारी थी । केदारनाथ मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड के रुद्रप्रयाग ज़िले में स्थित हिन्दुओं का प्रसिद्ध मंदिर है। हिमालय की गोद में केदारनाथ मन्दिर बारह ज्योतिर्लिंगों में सम्मिलित होने के साथ चार धाम और पाँच केदार (केदारनाथ ,तुंगनाथ ,रुद्र नाथ ,मध्यमहेश्वर और कल्पेश्वर ,इन सभी का निर्माण पाण्डवों ने कराया जो कि उत्तराखण्ड में स्थित हैं )में से भी एक है। यहाँ की प्रतिकूल जलवायु के कारण यह मन्दिर अक्षय तृतीया से दीपावली के दो दिन बाद तक ही दर्शन के लिए खुलता है ।पत्थरों से कत्यूरी शैली से बने इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण पाण्डवों के पौत्र महाराज जन्मोजय ने कराया था। यहाँ स्थित स्वयम्भू शिवलिंग अति प्राचीन है ।आदि शंकराचार्य ने इसका पुनर्निर्माण कराया था।
केदारनाथ की बड़ी महिमा है। उत्तराखण्ड में बद्रीनाथ और केदारनाथ-ये दो प्रधान तीर्थ, प्रमुख हैं ।दोनों के दर्शनों का बड़ा ही महत्ताहै। केदारनाथ के संबंध में लिखा है कि जो व्यक्ति केदारनाथ के दर्शन किये बिना बद्रीनाथ की यात्रा करता है, उसकी यात्रा निष्फल जाती है और केदारनाथ सहित नर-नारायण-मूर्ति के दर्शन का फल समस्त पापों के नाश कर ,जीवन मुक्ति की प्राप्ति का मार्ग बतलाया गया है।
कहते हैं कि भगवान विष्णु के अवतार महा तपस्वी नर और नारायण ने यहाँ भगवान शंकर की तपस्या की थी तो भगवान शंकर प्रसन्न होकर इस स्थान पर ज्योतिर्लिंग के रूप में अपना निवास बनाने के आशीर्वाद दिया ।
इस संबंध एक अन्य किवदंतीं भी है ।कहा जाता कि महाभारत के बाद पाण्डव पाप मुक्ति के लिए भगवान शिव से क्षमा माँगने काशी गये लेकिन भगवान शंकर पांडवों से रुष्ट थे और हिमालय पर गये लेकिन पाण्डव शिव की खोज जब यहाँ आ गये तो भगवान शंकर बैल के रूप में अन्य पशुओं साथ यहाँ से जाने लगे तो भीम दोनों पैर फैलाकर खड़े गये तो सभी पशु तो निकल गये लेकिन शिव ,भीम के पैरों के बीच से नहीं निकल कर ,दूसरी तरफ भागने लगे ।भीम उन्हें पहचान गये और उनकी पीठ पकड़ ली तो शिव लुप्त हो गये और उनकी पीठ वाला भाग यहाँ स्थापित हो गया ।कहते हैं कि सिर भाग पशुपतिनाथ के रूप में नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर में है ।
केदारनाथ यात्रा अन्य सभी यात्राओं से कठिन यात्रा मानी जाती है ।यहाँ पर जाने के लिये पहाड़ी पर सोलह किलोमीटर की चढ़ाई वाला मार्ग है ।कहीं पर सीढ़ियाँ तो कहीं कंकरीट का ढलान वाला रास्ता है।केदारनाथ यात्रा के लिए ,उत्तर काशी से रुद्रप्रयाग के पास हमें पहले नाला नाम के स्थान पर जाना था ।वहाँ पर रात्रि विश्राम के बाद 15 तारीख़ को केदारनाथ जाने का कार्यक्रम तय हुआ।14 /10 की प्रातः साढ़े नो बजे हम सभी भोजन करके दस बजे तक उत्तर काशी से केदारनाथ से पूर्व नाला (रुद्र प्रयाग )यात्रा के लिए रवाना हो गये ।आज लगभग दो सो किलोमीटर की बस यात्रा करनी थी ।यहाँ सड़क की स्थिति बहुत ही दयनीय है ।जगह जगह से टूटी हुई तो है ।साथ ही कहीं कहीं तो सड़क के निशान भी नहीं हैं।सड़क की चौड़ाई बहुत ही कम है ।सामने से दूसरा वाहन आने पर बड़ी मुश्किल रहती ।कई जगह तो स्थिति यह है कि जरा सी सावधानी हटी और दुर्घटना घटी वाली स्थिति रहती है ।हम शाम तक निर्धारित स्थान नाला पहुँचे जहाँ चौहान होटल में हमारे रहने की व्यवस्था है ।
रात्रि विश्राम के बाद सुबह हम सोनप्रयाग के लिए रवाना हो गये जो कि यहाँ से लगभग तीस किलोमीटर है ।सुबह लगभग छ : बजे जैसे ही हम सोनप्रयाग के लिये रवाना होने के लिये बस में सवार हुए तो देखा कि बस का आगे का एक टायर पंचर है। स्टेपनी बदलने क़रीब आधा घंटा लग गया । हमारे साथ तीन लोगों को सिरसी से हेलीकॉप्टर से केदारनाथ जाना था ।अन्य सभी की भी इच्छा हेलीकॉप्टर यात्रा की थी लेकिन तत्काल उसकी व्यस्था नहीं हो पाई । केवल एक अन्य टिकिट की ही व्यवस्था हो सकी ।
15/10 /23 प्रातः आठ बजे हम सोन प्रयाग पहुँच गये ।यहाँ से लगभग तीन किलोमीटर पैदल चल कर सीतापुर पहुँचे वहाँ से जीप द्वारा पाँच किलोमीटर गौरी कुण्ड पहुँचे ।इस पाँच किलोमीटर लिए ही पचास रुपये प्रति सवारी किराया लिया जाता है ।अब गौरीकुण्ड से मुख्य यात्रा प्रारम्भ होती है ।यहाँ से केदारनाथ मन्दिर की दूरी सोलह किलोमीटर है।सम्पूर्ण मार्ग चढ़ाई वाला है ।रास्ता कहीं टूटा हुआ गड्ढे वाला तो कहीं चिकना सपाट भी है लेकिन इस सोलह किलोमीटर में लगभग छ:हजार फीट की पहाड़ी चढ़ाई है ।केदारनाथ की समुद्र ताल से कुल ऊँचाई 3583 मीटर(11775फीट) है यहाँ से कुछ लोग पैदल यात्रा करते हैं।यहाँ से घोड़े ,पिट्ठू (बास्केट ,जिसमें सवारी बैठकर मज़दूर पीठ पर लादकर ले जाता है ),और पालकी भी यहाँ पर मंदिर तक जाने के लिए उपलब्ध हैं। हमारे ग्रुप के कुल बारह लोगों में से चार हेलीकॉप्टर से छ: घोड़े से और मैं और श्रीमती जी पैदल यात्रा पर निकल गये ।पूरा मार्ग घुमावदार था ।कहीं कहीं फिसलन भी थी । रास्ते में जगह जगह चाय ,नाश्ते की दुकाने लगी हैं।पीने के पानी के लिए प्राकृतिक झरनों का शीतल जल था जो थोड़ा सा पीने से ही शरीर में अंदर तक ठंडक मिल जाती है ।इन झरनों के पानी के सामने फ्रिज और आर ओ का पानी भी बेकार है । बहुत ही साफ और ठंडे पानी की व्यवस्था प्रकृति ने जगह जगह कर रखी थी ।फिर भी कुछ लोग बोतल वाले पैक पानी को ही पचास रुपये तक में खरीद कर पी रहे थे ।मेरे विचार से यहाँ पैक बोतल पानी पीने वालों ने ईश्वर के मुफ़्त उपहार की क़ीमत को नहीं समझा।
रास्ते में जैसे जैसे हम ऊपर की और जा रहे थे थकान के साथ साँस भी फूलने लगी थी ।ऊँचाई पर होने के कारण यहाँ पर ऑक्सीजन बहुत है जिससे बहुत जल्दी साँस फूलने लगती है ।इसलिए आराम से रुकते हुए हम धीरे धीरे आगे बढ़ रहे थे ।श्रीमती जी के चेहरे पर थकान स्पष्ट नज़र आने लगी थी लेकिन फिर भी मेरे बार बार आग्रह पर भी घोड़े पर बैठने को तैयार नहीं थी ।इस बीच हम लगभग पाँच किलोमीटर चले होंगे कि तेज बारिश पड़ने लगी ।अब श्रीमती जी के मनोभाव को देखते हुए मैंने निर्णय लिया कि हम दोनों ही शेष मार्ग घोड़े से ही तय करते हैं।इस बार वे तुरंत तैयार हो गई क्योंकि मैं भी घोड़े से जाने के लिए तैयार था ।पाँच किलोमीटर आने में ही हमें लगभग दो घंटे समय लग गया था ।घोड़े पर सवार होने से पूर्व हम पहले बारिश कम होने प्रतीक्षा में एक रेस्टोरेंट बैठ गये ।इस बीच हमारे पास उपलब्ध भोजन के पैकेट्स हमने भोजन किया और बारिश के कम होने पर हमने अपनी शेष यात्रा घोड़े से प्रारम्भ कर दी ।रैन कोट हम कोटा से ही साथ लाये थे ,इसलिए हमने रैन कोट भी पहन लिया ।यहाँ पर सीढ़ियाँ यमुनोत्री की तरह ऊँची नहीं थी ।फिर भी घोड़ा जब अपने आगे के पैर अगली सीढ़ी पर रखता है तो निश्चित ही एक अज्ञात भय मन मैं रहता ही है ।रास्ते में चारों तरफ़ ऊँचे ऊँचे पर्वतों के बीच शीतल निर्मल जल के बहते हुए झरने वास्तव में मनमोहक तो हैं ही थकान में यात्रियों के लिए जीवनदायी भी हैं।प्रकृति के स्वरूप का आनन्द लेते हुए शाम लगभग साढ़े पाँच बजे हम मन्दिर परिसर के समीप पहुँच गये ।हमारे साथ के अन्य लोग जो घोड़े से गये थे वे भी हमसे कुछ पहले ही पहुँचे ।हेलीकॉप्टर वाले ठीक हमारे साथ ही पहुँचे ।वहाँ रात्रि विश्राम के लिए तीन कमरों (12 बेड) की व्यवस्था कर सभी मंदिर की ओर चल दिये ।हमें मालूम हुआ कि रात्रि में विशेष पूजा के लिए बुकिंग कराने के लिए काउंटर पर रजिस्ट्रेशन कराना होगा जिससे हम गर्भगृह में जाकर पूजा कर सकते हैं।पाँच लोगों बैच बनाकर रजिस्ट्रेशन स्लिप बना दी जाती है ।हमने सर्वप्रथम काउंटर पर जा कर निर्धारित शुल्क जमा करके बारह लोगों के लिए दो स्लिप छ: छ: लोगों बनवा ली ।हमें अर्धरात्रि के बाद 1:45 बजे पूजा का समय मिला ।अब सांध्य आरती समय हो गया हम सभी ने इस आरती का आनन्द लिया ।वास्तव में अद्भुत दृश्य है ।मन्दिर परिसर में कुछ साधु ,विशेष वेशभूषा में शरीर पर भभूत लगाये हुए नन्दी की विशाल मूर्ति के चारों ओर परिक्रमा करते हुए आरती कर रहे थे ।जो विशेष आकर्षक दृश्य है ।आरती के साथ श्री केदारनाथ के दर्शन भी हमने कर लिये ।ठण्ड बहुत तेज थी । समय तापमान -3 digri celsius था उसपर पैरों के नीचे बारिश के कारण फर्श भी गीला हो रहा था जिससे सभी के पैर ठंड से सन्न होने लगे थे ।सभी तुरन्त अपने अपने जूते पहने और गरम गरम चाय पी ।अब भोजन का भी समय गया था अत:सभी ने वहीं भोजन किया और अपने रात्रि विश्राम वाले पर गए।रात्रि के लगभग नो से अधिक का समय हो गया था ।विशेष पूजा के लिए हमें 1:15 बजे पुन:मन्दिर जाना है ।ठंड प्रकोप बढ़ता जा रहा था ,इसलिए सभी अपने अपने बिस्तर में लेट गये ।पीने का पानी ठंडा था जिससे प्यास होते हुए भी पीने की नहीं रही थी ।कुछ देर विश्राम करके रात्रि एक फिर मन्दिर के लिए रवाना हो गये ।अभी तापमान -4डिग्री गया था।मंदिर पहुँचाने पर देखा कि इस समय नियमित दर्शन थे ।केवल बुकिंग वाले लोग ही अपने अपने निर्धारित समय कि अनुसार पहुँच रहे थे ।अब हमने ध्यान से अन्दर देखा कि वहाँ पाँचों पाण्डवों की मूर्तियाँ लगी थी गर्भगृह सामने चाँदी नंदी विराजमान थे एक ओर गणपति थे ।अन्दर गर्भगृह में पहुँचे तो वहाँ बीच में काले पत्थर के रूप में केदारनाथ विराजमान हैं जो कि बैल की पीठ की तरह से है ।वहाँ उपस्थित पंडित विधि पूर्वक पूजन कराया ।यहाँ इस केदारनाथ के स्वरूप पर पूजा में घी लगा कर मालिश का विशेष महत्व बताया गया है हम सभी ने भी पूजा की,घी लगाया और जलाभिषेक किया ।
पूजा से वापस लौटने में लगभग रात्रि के ढाई बाज गये।अब सभी थोड़ा आराम करने के लिए सभी बिस्तर में लेट गये ।सभी कुछ देर सो लिये और सुबह पाँच बजे सभी हैलीपैड की और चल दिये ।तीन लोगों की वापसी सुबह छ : बजे की थी ।अन्य भी कोशिश में थे कि संभवतः अन्य कुछ टिकिट मिल जायें तो हेलीकॉप्टर ही वापस जाएँगे ।लेकिन सात बजे तक प्रतीक्षा बाद टिकिट नहीं मिलने की संभावना को देखते हुए हम हैलीपैड रवाना हो गये ।छ: लोग कंडी से रवाना हुए और मेरे साथ दो अन्य घोड़ों से रवाना हुए ।हम कंडी वालों से लगभग एक घंटे बाद रवाना हुए क्योंकि घोड़े वाले कंडी से जल्दी पहुँच जाते हैं।अब वापसी मैं हम बड़ी सावधानी से घोड़ों पर बैठकर नीचे की ओर चल पड़े ।रास्ते में कुछ देर रुक चाय नाश्ते का आनन्द लेते हुए हम लगभग डेढ़ बजे नीचे पहुँच गये।कंडी से आने वाले भी रास्ते में थे । बीच बारिश शुरू हो गई थी ।कंडी से आने वालों में एक को छोड़कर अन्य सभी आगये लेकिन बारिश कारण हमसे कुछ दूर पहले वे रुक गये थे ।बारिश अब बहुत तेज होती रही थी ।हमारे टूर ऑपरेटर का फ़ोन भी आ रहा था ।उसने बताया कि मौसम बहुत ख़राब होने वाला है जितना जल्दी सको रुद्र प्रयाग बस तक पहुँच जाओ ।लगभग तीन बजे जैसे ही हमारी अंतिम सवारी नीचे पहुँची हम तुरन्त गौरीकुंड टैक्सी स्टैण्ड के लिए रवाना हो गये ।वहाँ से सीतापुर पहुँचकर पैदल रुद्रप्रयाग के लिये रवाना हो गए ।सभी को भूख भी लगी थी और थकान भी थी इसलिए बरसात के इस मौसम में तीन किलोमीटर का मार्ग भी बहुत लम्बा लग रहा था ।जैसे तैसे हम बस तक पहुँचे तो बस स्टैण्ड पर भी पानी भरा था ।बड़ी मुश्किल से बस तक पहुँचे तब जाकर कुछ राहत की साँस ली। तभी हमें मालूम पड़ा कि केदारनाथ यात्रा भी अब ख़राब मौसम के कारण बंद कर दी गई है ।सभी ने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि हम समय पर बस तक पहुँच गए।बस से हम अपने रात्रि विश्राम स्थल नाला ग्राम स्थित चौहान होटल पहुँच कर भोजन के बाद सो गये ।अब 17/10/23 की सुबह से हमें बद्रीनाथ की यात्रा के लिए रवाना होना था ।
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Thursday 19 October 2023
चार धाम यात्रा द्वितीय धाम गंगोत्री (3)
गंगोत्री यात्रा (द्वितीय धाम ) 3
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यमनोत्री की यात्रा के बाद अब दूसरे धाम के लिये यात्रा की तैयारी शुरू हुई ।अब हमें गंगोत्री के लिए जाना था ।इसके लिए हम ख़राबी स्थान का नाम जहाँ हम ठहरे थे )से उत्तर काशी के लिये रवाना हो गये ।प्रातःयहाँ से रवाना होने पर बीच में एक स्थान शिव गुफा है ।ख़राबी से शिव गुफा लगभग पचास किलोमीटर है वहाँ हम दोपहर को पहुँचे । यह एक प्राकृतिक गुफा है उस स्थान पर रुकते हुए हमें उत्तर काशी जाना था ।उत्तर काशी में रात्रि विश्राम करने के बाद हमें दूसरे दिन गंगोत्री दर्शन के लिए रवाना होना था ।गंगोत्री से गंगा का उद्गम माना गया है । ख़राबी से उत्तरकाशी दूरी लगभग दो सो किलोमीटर है लेकिन इसमें सात आठ घंटे का समय लग जाता है । पहाड़ी रास्ता और क्षतिग्रस्त सड़क होने कारण समय अधिक लगता है ।
शिव गुफा पर हमें लगभग दो बज गये थे।गुफा के अंदर जाने का रास्ता बहुत ही छोटा है । जिससे हम अंदर गये तो देखा कि गुफा में चारों और पानी टपक रहा था । एक तरफ़ एक कुण्ड जैसे स्थान था जिसमें निरंतर पानी आ रहा था ।वहाँ उपस्थित पंडित जी ने बताया कि यहाँ से गंगा निकल रही है । गुफा में ऊपर तरफ़ अनेक चित्र प्राकृतिक रूप से उभरे हुए थे ।कोई मगर मच्छ का आकार था ,तो कोईशेष नाग की आकृति है ।कहीं गणेश की तो कही पार्वती की आकृति उभरी हुई है ।बीच में एक काले पत्थर की बड़ी शीला जो शिवलिंग का स्वरूप है उस पर ॐ की आकृतियाँ उभरी हुई है ।इस शिव गुफा का उद्गम 23 मई 1999 में ही हुआ या यह कहें की इस समय ही किसी ने इस स्थान को देखा होगा और इसके बाहर माँ पार्वती का मंदिर भी उसी समय बनाया गया ।शिव रात्रि के दिन आजकल यहाँ मेला भी लगता है और इसके उद्गम दिवस को भी बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है । यह उत्तर काशी यमुनोत्री मुख्य सड़क पर ही है लेकिन इस गुफा तक पहुँचने के लिये लगभग 125 सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं।अब यहाँ से हम उत्तरकाशी की ओर रवाना हो गये ।शाम को पाँच बजे हम उत्तर काशी पहुँचे और पहुँचते ही वहाँ काशी विश्वनाथ के मंदिर में दर्शन किए । यह भी एक पौराणिक मंदिर है । इसमें शक्ति का प्रतीक एक विशाल त्रिशूल है ।कुछ लोगों ने वहाँ अपनी मनोकामनाओं के लिए चुनरियाँ बांध रखी थी ।विश्वनाथ के दर्शन के बाद हम अपने रात्रि विश्राम स्थल की ओर हो गये ।यहाँ शिव धाम होटल में हमारा रात्रि विश्राम था ।
दूसरे दिन 13 /10 को हमें प्रातः गंगोत्री दर्शन के लिए जाना था ।प्रातः पाँच बजे ही हम गंगोत्री के लिए रवाना हो गये । रास्ते में एक स्थान पर बड़ा ही मनोरम झरना बह रहा था वहीं पर हमारे टूर ऑपरेटर ने गरमा गर्म पोहे और चाय का नाश्ता कराया ।केवल आधा घंटे में ही हमारा नाश्ता तैयारियों गया था । भोजन बनाने वाले हमारे साथ ही अपनी रसोई संपूर्ण सामान लेकर साथ ही थे ।वैसे संपूर्ण रास्ते में अनेकों झरनों से साफ़ और बहुत ही ठंडा पानी बह रहा था।कहीं भी मिनरल बोतल के पानी आवश्यकता नहीं थी ।इस प्राकृतिक पानी के सामने पैक बोतलों का पानी व्यर्थ है ।
हम दोपहर लगभग बारह बजे गंगोत्री पहुँच गये थे।गंगा के विषय में पौराणिक कथाओं के अनुसार श्री राम चंद्र जी के पूर्वज राजा भगीरथ ने यहां एक पवित्र शिलाखंड पर बैठकर भगवान शंकर की प्रचंड तपस्या की थी। इस पवित्र शिलाखंड के निकट ही 18 वीं शताब्दी में इस मंदिर का निर्माण किया गया। ऐसी मान्यता है कि देवी भागीरथी (गंगा)ने इसी स्थान पर धरती का स्पर्श किया। ऐसी भी मान्यता है कि पांडवो ने भी महाभारत के युद्ध में मारे गये अपने परिजनों की आत्मिक शांति के लिए इसी स्थान पर आकर एक महान देव यज्ञ का अनुष्ठान किया था।
यहाँ शिवलिंग के रूप में एक नैसर्गिक चट्टान भागीरथी नदी में जलमग्न है। यह दृश्य अत्यधिक मनोहार एवं आकर्षक है। इसके देखने से दैवी शक्ति की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान शिव इस स्थान पर अपनी जटाओ को फैला कर बैठ गए और उन्होने गंगा माता को अपनी घुंघराली जटाओ में लपेट दिया। जिससे माँ गंगा के वेग में कमी हुई। ।शीतकाल के आरंभ में जब गंगा का स्तर काफी अधिक नीचे चला जाता है तब उस अवसर पर ही उक्त पवित्र शिवलिंग के दर्शन होते हैं।गंगोत्री से लगभग 18 किलोमीटरकी दूरी पर गोमुख है वास्तव में वह गंगा का उद्गम स्थान है ।गंगोत्री पर गंगा मंदिर भी है जो कि सफ़ेद संगमरमर का बना है यह गंगाजी मंदिर, समुद्र तल से 3042 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। प्राचीन काल में यहां मंदिर नहीं था।गंगोत्री में सेमवाल पुजारियों के द्वारा गंगा माँ के साकार रूप यानी गंगा धारा की पूजा की जाती थी भागीरथी शिला के निकट एक मंच था जहां यात्रा के मौसम में तीन-चार महीनों के लिये देवी-देताओं की मूर्तियां रखी जाती थी इन मूर्तियों को मुखबा आदि गावों से लाया जाता था जिन्हें यात्रा मौसम के बाद फिर उन्हीं गांवों में लौटा दिया जाता था।
गढ़वाल के गुरखा सेनापति अमर सिंह थापा[3] ने 18वीं सदी में गंगोत्री मंदिर का निर्माण सेमवाल पुजारियों के निवेदन पर उसी जगह पर किया गया जहां भागीरथ ने तप किया था। माना जाता है कि जयपुर के राजा माधो सिंह द्वितीय ने 20वीं सदी में मंदिर की मरम्मत करवायी।प्रत्येक वर्ष मई से अक्टूबर के महीनो के बीच पतित पावनी गंगा मैंया के दर्शन करने के लिए लाखो श्रद्धालु तीर्थयात्री यहां आते है। यमुनोत्री की ही तरह गंगोत्री का पतित पावन मंदिर भी अक्षय तृतीया के पावन पर्व पर खुलता है और दीपावली के दिन कपाट बंद हो जाते हैं ।
हम सभी गंगोत्री धाम पर पहुँच कर गंगा स्नान के लिए गये तो जैसे ही गंगा के पवित्र जल को छुआ तो बर्फीले पानी में स्नान करने का साहस धराशायी हो गया ।फिर भी हिम्मत करके जैसे तैसे सभी स्नान किया ।वास्तव में यहाँ गंगा स्नान करना बड़ी हिम्मत कि काम था ।सभी ने यहीं से गंगा जल भी अपने अपने पात्रों में भरा ।मान्यता है कि यहाँ से गङ्गा जल को लोटे में भरके लेटकर गंगा सागर में शिव अभिषेक करने पर ही ही चार धाम यात्रा पूर्ण मानी जाती है । हमने भी एक ताँबे के लोटे में गंगा जल लेकर पैक कर लिया और भविष्य की गंगासागर यात्रा की अग्रिम बुकिंग बिना तारीख़ के बुक कर ली ।यहाँ गंगा स्नान करने के बाद विधिवत वहाँ के एक पंडित जी से पूजन कराया ।गंगा माँ के मंदिर में दर्शन किए जो बड़ा ही मनमोहक था ।साथ में वहाँ स्थित गणेश मंदिर शिव मंदिर वि अन्य मंदिर में दर्शन करने के बाद अब वापस हम हमारे होटल गये । यहाँ से अब केदारनाथ यात्रा के लिए दूसरे दिन प्रातः रवाना होना है।
Tuesday 17 October 2023
चार धाम यात्रा (2)
यमुनोत्री यात्रा (प्रथम धाम ) 2
अब आज दस अक्टूबर से हमारी चार धाम की मुख्य यात्रा शुरू होनी थी ।स्नान करके हम साढ़े सात बजे वापस आ गए थे । सभी ने अपने सामान की पैकिंग की और भोजन करने के बाद हम लगभग सुबह दस बजे यमनोत्री के लिए रवाना हो गए ।यहाँ से हमें ख़रादी जाकर रात्रि विश्राम करना था ।फिर वहाँ से दूसरे दिन 11 तारीख़ को यमनोत्री के लिए प्रस्थान का कार्यक्रम है । ख़रादी ,हरिद्वार से क़रीब 265 km है लेकिन पहाड़ी रास्ता और चढ़ाई होने से समय अधिक लगाने की संभावना थी ।रास्ते में प्रकृति का आनंद लेते हुए सभी सफ़र कर रहे थे ।कुछ देर भजन कीर्तन चले कुछ आपसी वार्तालाप ।हम रात्रि लगभग साढ़े सात बजे खरादी सूर्या पैलेस होटल पहुँचे । हमारा रात्रि विश्राम यहीं पर था। टूर ऑपरेटर मनोज ने पहुँचते ही तुरंत खाना बनवाना शुरू कर दिया । भोजन साढ़े नो बजे तक सभी ने भोजन कर लिया ।
अब दूसरे दिन प्रात: पाँच बजे ही चलाने के आदेश हुए । सुबह चार बजे ही सभी को चाय मिल गई थोड़ी देर बाद सभी को दोपहर के भोजन के पैकेट भी मिल गए साथ ही नाश्ते के लिये बिस्किट के पैकेट भी थे ।साढ़े पाँच बजे हमारी बस यमनोत्री के लिए रवाना हो गई ।यहाँ से यमुनोत्री केवल लगभग तीस किलोमीटर ही है ।
खरादी से जानकी चट्टी तक की दूरी लगभग तीस किलोमीटर ही थी लेकिन रास्ता बहुत ही ख़तरनाक है।बस ड्राइवर के अनुसार लगभग तीन से चार घंटे का समय लग जाता है क्योंकि सड़क बहुत ही कम चौड़ी है और साथ ही बीच बीच में से बहुत ही गड्ढे हैं ।वास्तव में जब हमने बस में यात्रा शुरू की तो कुछ समय तो सड़क ठीक थी लेकिन शीघ्र ही सड़क का विकराल रूप प्रारंभ हो गया ।सड़क की चौड़ाई तो कम थी ही साथ ही थोड़ी थोड़ी दूरी पर ख़तरनाक मोड़ भी थे ।निरंतर चढ़ाई वाली सड़क थी जिस कारण बस की गति बहुत धीमी ही थी । कई स्थानों पर सड़क का कोई निशान ही नहीं था ।कुछ जगह पहाड़ की मिट्टी और चट्टानें भी आधी सड़क तक मिली ।मौसम बहुत ठंडा था ।सुबह का तापमान लगभग पाँच डिग्री था। सुबह सूर्योदय से पूर्व कहीं कोई बसावट आती तो दूर से पहाड़ी पर रोशनी से लगता जैसे तारे ज़मीन पर आ गए।जैसे जैसे सूर्य का प्रकाश बढ़ा तो चारों ओर प्रकृति की अनोखी छटा देखने को मिल रही थी । साथ ही बस की खिड़की से सड़क के साथ साथ गहरी खाइयाँ देख कर मन में घबराहट होना भी स्वाभाविक था ।उस पर सड़क के नाम पर अधिकांश जगह गड्ढों वाली कच्ची मिट्टी और गिट्टी वाली सड़क ।कई जगह झरनों के पानी से सड़क पर कीचड़ भी मिली ।सामने से कोई भी वहाँ आने पर जब बस को सड़क के किनारे पर लगाया जाता था सभी के मन में एक भय कि स्थिति रहती थी क्योंकि सड़क पर आने जाने वाले किसी भी एक वाहन को बिलकुल किनारे तक टायर ले जाना होता था ।जरा सी भी असावधानी हुई की बस जान के लाले पड़ा जायें ।
हम दो घंटे में ही जानकी चट्टी पहुँच गये थे ।अर्थात अनुमान से लगभग एक घंटे पहले ही हम पहुँच गए । टूर ऑपरेटर ने बताया कि हम जल्दी रवाना हो गए थे इसलिए रास्ते में हमें जाम नहीं मिला अन्यथा कई बार घंटों तक जाम लग जाता है ।बरसात होने पर स्थिति ओर भी विकट हो जाती है ।जानकी चट्टी से लगभग छ: किलोमीटर का पैदल का रास्ता है ।यह पूरा रास्ता चढ़ाई वाला है ।पैदल जाने पर न्यूनतम लगभग तीन घंटे लग जाते हैं।हमारे साथ के किसी भी व्यक्ति का पैदल चलने का मानस नहीं था ।मैं पैदल जाना चाहता था लेकिन सभी लोगों के सामने मुझे भी बहुमत के साथ चलाना पड़ा ।यहाँ से यमुनोत्री के लिए घोड़ा ,पालकी और पिट्ठू (बास्केट जो कि एक मज़दूर अपनी कमर पर लाद कर चलता है उस बास्केट में यात्री को बिठा करवाए जाता है )की व्यवस्था थी ।कुछ पालकी से कुछ पिट्ठू से रवाना हुए । श्रीमती सहित हम पाँच ,घोड़ों से रवाना हो गये ।पाँच में केवल हमारी श्रीमती जी ही महिला थी ।एनी कोई महिला घोड़े पर सवार होने का साहस नहीं कर पाई ।
यहाँ से एक छोटी गली में प्रवेश करते हुए हमारे घोड़े आगे बढ़े ।रास्ते में चाय नाश्ते की दुकाने लगी थी । जैसे जैसे हम आगे बढ़ाते गए वैसे वैसे रास्ते की चढ़ाई बढ़ती गई । कहीं सीढ़ियाँ तो कहीं सीधा रास्ता था । लेकिन चढ़ाई वाला रास्ता था । सीढ़ियों पर घोड़े जब चढ़ते तो उसपर बैठने वालों को थोड़ा सतर्क होकर बैठना पड़ता था ।ऊपर चढ़ते समय शरीर को आगे की तरफ़ झुकाने के लिए घोड़े वाले ने कहा ताकि परेशानी नहीं हो । एक स्थान पर एक ही जगह छ: सात बार सीढ़ियाँ घूमती हुई ऊपर की ओर गई।कहीं कहीं सीढ़ियों की ऊँचाई एक -डेढ़ फिट तक भी थी ।
यमुनोत्री समुद्र तल से 3235 मीटर (10613.5 फीट)की ऊँचाई पर स्थित है ।यहाँ पर यमुना देवी का मंदिर है ।कहते है कि जहाँ से यमुना निकलती है वहाँ का जल पीने से मनुष्य पापमुक्त होता है ।यमुनोत्री मंदिर के कपाट बैशाख माह शुक्ल पक्ष की अक्षय तृतीया को खोले जाते हैं।यमुनोत्री मंदिर का अधिकांश हिस्सा सन् 1885 में गढ़वाल के राजा सुदर्शन शाह ने लकड़ी से बनाया था ।मंदिर का वर्तमान स्वरूप गढ़वाल नरेश प्रताप शाह ने दिया ।घोड़ों से मंदिर के द्वार तक पहुँचने में हमें लगभग दो घंटे का समय लगा । हमारे साथ के कुछ लोग पीछे रहा गये थे उनकी इंतज़ार में क़रीब एक घंटे तक प्रतीक्षा करनी पड़ी ।सभी के आने के बाद हम यमुना जी के उद्गम तक पहुँचे ।वहाँ पहुँचने पर देखा कि स्नान के लिये गर्म पानी का कुंड था ।महिला और पुरुषों के लिये अलग अलग कुण्ड बने हुए थे ।सभी श्रद्धा भाव से जैसे ही गर्म पानी के कुंड में स्नान के लिए अंदर गये तो पानी बहुत ही गर्म था ।इस गर्म कुंड को सूर्य कुंड के नाम से जानते हैं ।स्नान के बाद ऊपर मंदिर में पूजा की और यमुना देवी के दर्शन बड़े आराम से किए ।पास ही हनुमान मंदिर है जिसके भी सभी ने दर्शन किए ।
मंदिर दर्शन के बाद सभी ने भोजन किया जो कि हम साथ ही पैक करके लाये थे ।अब वापसी की तैयारी थी ।हमारे घोड़े तैयार थे ।अब नीचे की तरफ़ उतरने में कुछ परेशानी का सामना करना पड़ता है ।क्योंकि अब सीढ़ियों से नीचे की ओर घोड़ों पर जाना था ।नीचे की तरफ़ घोड़ों पर बैठ कर उतरना बड़ा ही कठिन कार्य है । जैसे ही घोड़ा एक सीढ़ी से दूसरी सीढ़ी पर उतरता है तो ऐसा लगता है जैसे हम नीचे ही गिर जाएँगें । घोड़े के नीचे की सीढ़ी पर पैर रखते ही एक झटका कमर तक लगा और साथ ही इस झटके के साथ कब हम सशरीर नीचे आ जायें यह डर भी मन में बना रहता है।लेकिन घोड़े के मालिक ने नीचे उतरते समय की सही तकनीक नेम बताई कि शरीर का वजन दोनों पैरों पर डालकर पैर सीधे रखो और शरीर पीछे की ओर झुकाओ तो परेशानी नहीं आएगी । बाद में तो हमने वैसे ही करने की कोशिश की जिससे थोड़ा राहत भी रही और शरीर का संतुलन भी बना रहता है ।लेकिन फिर भी स्थिति ख़तरनाक ही थी ।श्रीमती जी के घुटने में तो एक स्थान पर घोड़े के नीचे उतरते समय चोट भी लग गई थी क्योंकि घोड़ा एक तरफ़ को कुछ अधिक ही मड गया था और वहाँ किनारे पर एक खम्भा था जिससे घुटना टकरा गया ।उसके बाद एक साथ कई घूम वाली सीढ़ियों पर हम घोड़े से उतर कर पैदल ही नीचे की तरफ़ उतारने लगे लगभग एक किलोमीटर नीची आने के बाद समतल आने पर एक पुल से हम वापस घोड़ोंपर सवार हो गये ।हमारे साथ अन्य भी इस स्थान पर घोड़ों से नीचे उतर कर पैदल ही चल रहे थे । संभवतः सभी स्थिति हमारे जैसी ही थी ।
नीचे आने बाद देखा की हमारे साथ के कुछ लोग जो पिट्ठू ( बास्केट) में आये थे वे अभी तक नहीं पहुँचे थे इसलिए उनके लिए लगभग आधा घंटा प्रतीक्षा की ,और उनके आने के बाद हम सभी बस द्वारा वापस खरादी के लिये रवाना हो गये ।वापस आकर सभी चाय चाय और रात्रि भोजन के बाद कुछ समय अपने अनुभव एक दूसरे को सुनाते रहे और रात्रि विश्राम के लिए चले गये ।
Friday 13 October 2023
चार धाम यात्रा, हरिद्वार (1)
चार धाम यात्रा,हरिद्वार (1)
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कहते हैं कि चार धाम यात्रा का हमारे जीवन में विशेष महत्व है ।अब इस महत्व को समझना और समझना दोनों ही कार्य मेरे लिये विकट हैं ।हालाँकि इसे पूर्ण रूप से धार्मिक भावनाओं और आस्था से जोड़ कर हम देखते हैं जो कि सही भी है ।प्राय: सभी जिम्मदारियों से मुक्त होने के बाद हम धार्मिक यात्रायें करना प्रारम्भ करते हैं।जिसके पीछे शायद यही विचार रहा होगा कि अब पारिवारिक जिम्मेदारियों के वहाँ के लिये अगली पीढ़ी तैयार हो गई है इसलिए सभी ज़िम्मेदारी उन्हें सौपों और अध्यात्म की ओर चल पड़ो।वैसे आजकल हॉलीडे और लाँग वीकेंड टूर की परंपरा भी विकसित होती जा रही जिसमें भी कुछ युवा भी धार्मिक स्थानों पर यात्रायें करने लगे हैं।परन्तु पहले ऐसा नहीं होता था ।कहीं छुट्टी मनाने जाना होता था तो मामा ,मौसी,आदि के यहीं जाया जाता था ।आज सभी संबंध वीडियो कॉल में सिमट कर रह गये हैं।धार्मिक यात्रायें भी अब छुट्टियाँ मनाने और आनन्द का विषय हो गया है ।
हमारे कुछ परिजनों का लगभग एक माह पहले ही चार धाम यात्रा का कार्यक्रम बना था ।हमसे भी पूछा गया लेकिन अभी दो माह पूर्व अमेरिका यात्रा से वापसी होने पर अभी फिर से यात्रा पर निकलने की कुछ इच्छानहीं थी इसलिए हमने तुरंत जाने से माना कर दिया ।हालाँकि अमेरिका यात्रा और इस यात्रा में काफी अंतर है ।फिर भी न जाने क्यों जाना तय नहीं हुआ लेकिन यात्रा के प्रारंभ से मात्र दो दिन पूर्व प्रातःरनिंग के बाद अचानक श्रीमती जी ने कहा कि हम भी चलें चारधाम,गंगोत्री ,जमनोत्री,बद्रीनाथ ,केदार नाथ जी की यात्रा पर ।अब भला मुझे क्या आपत्ति हो सकती थी ,क्योंकि कहीं भी बाहर जाने के लिए श्रीमती जी कम ही साहस कर पाती हैं।तुरन्त टूर ऑपरेटर से दो सीट के विषय में बात की और ऑनलाइन पेमेंट कर दिया ।सभी जयपुर से हरिद्वार जा रहे थे ।कोटा से हरिद्वार के लिए सीधी ट्रेन सेवा होने पर हमारे सीधे हरिद्वार जाकर उनके साथ सम्मलित होने का विचार किया और टूर ऑपरेटर से बात की।उसने कहा ठीक है आप सीधे हरिद्वार पहुँचो सभी वहाँ मिलते हैं वहाँ मिलने का स्थान उन्होंने हमें भेज दिया ।ट्रेन में सीट कन्फर्म नहींथी लेकिन उसकी चिंता नहीं थी विश्वास था कि सीट तो कन्फर्म हो ही जायेगी ।और सीट कन्फर्म हो भी गई ।
आज आठ अक्तूबर 23को शाम को ट्रेन है ।हम आज सुबह से ही जाने के लिए कपड़े , आवश्यक सामान जमाने में लग गए ।दिन में हरिद्वार की सीट भी कन्फर्म हो गई।समय पर शाम को ट्रेन रवाना हो गई थी।टूर ऑपरेटर से सम्पर्क किया और उसे भी समय ट्रेन के पहुँचने का समय बता दिया था।हमारी ट्रेन का पहुँचने का समय प्रातः 3:55 था ।ट्रेन ऑपरेटर ने सुबह निश्चित स्थान महाजन सदन मिलने के लिए कह दिया था ।ट्रेन भी दूसरे दिन सही समय पर पहुँच गई और हम हमारे ट्रिप के अन्य साथियों से पहले ही पहुँच गये ।अन्य सभी लोग लगभग सुबह नो बजे पहुँचे तभी सब नाश्ता करके हर की पौड़ी पर स्नान करने और हरिद्वार भ्रमण के लिए निकल गए । हरिद्वार विश्व में एक विख्यात तीर्थ स्थल ।हरिद्वार कुंभ की नगरी भी कहलाती है ।मान्यता है कि प्राचीन काल में हरिद्वार हर की पौड़ी हर की पौड़ी पर अमृत की बूँदे छलक कर गिरी थी जिसपर यहाँ पर प्रति बारह साल में महाकुंभ का आयोजन होता है ।गत महाकुंभ 2021 में हरिद्वार में ही आयोजित हुआ था ।यहाँ सात प्रमुख घाट हैं।कुशावर्त या हर की पौड़ी एक प्रमुख घाट है ।यहाँ श्राद्ध, तर्पण ,पिण्ड दान का विशेष महत्व है।कहा जाता है यहाँ भगवान तत्तात्रेय की तपोस्थली है ।इसके अतिरिक्त यहाँ पर नाई घाट,विष्णु घाट , गऊ घाट,बिरला घाट और सती घाट हैं।जिनके विषय में अलग अलग महत्ता बताई जाती है ।हम हर की पौढ़ी पर पहुँचे तो वहाँ का दृश्य बड़ा ही विहंगम था ।गंगा के दोनों ओर अलग अलग घाट पर हर तरफ़ महिला पुरुष गंगा में डुबकी लगाने के साथ ही हर तरफ़ हर हर गंगे का जयनाद हो रहा था ।चारों ओर गंगा नदी से गंगा मैया का स्वरूप अपने आप साकार होता नज़र आ रहा था ।बड़े ही तेज बहाव वाले ठंडे ठंडे पानी से स्नान करने का अलग ही आनंद है ।हमारी इस चार धाम की यात्रा में हम कु चार लोग हैं ।जिसमें दस तो आपस में पारिवारिक रिश्तेदार ही थे तथा दो अन्य थे जो कि जयपुर से थे ।
हर की पौड़ी का स्नान के बाद हम भी शायद किसी पुण्य के भागीदार बन गए थे ऐसी सभी की सोच रही और अधिक पुण्य कमाने की लालसा में हम मनसा देवी के दर्शन के लिए आगे बढ़ चले।आज का दी पूरी तरह से हमारी चार धाम की यात्रा के अतिरिक्त वाला दिन था ।क्योंकि हमारी यात्रा का सही रूप से शुभारंभ दस अक्टूबर से होना था इसलिए आज के दिन का सही उपयोग करने के लिए हरिद्वार भ्रमण में मुख्य स्थानों पर जाने के निश्चय के साथ सभी मनसा देवी के लिए चल दिये, जिसके लिये हर की पौढ़ी से लगभग 750 मीटर पर केबल कार की बुकिंग थी ।वहाँ तक पैदल ही पहुँचने के बाद सभी का विचार बना कि मनसा देवी के साथ ही चण्डी मंदिर के भी दर्शन कर लिए जायें । मनसा देवी और चण्डी देवी ,दोनों ही मंदिर पहाड़ी पर बहुत ही ऊँचाई पर स्थित है ।जिसके लिए केबल कार की व्यवस्था है जो कि निर्धारित शुल्क जमा करके टिकिट लेकर की जाती है ।कुछ लोग पैदल भी जाते हैं।हमने दोनों स्थानों के लिए कॉम्बो पैक वाला टिकिट लिया ।केबल कार के लिए काफ़ी लंबी लाइन थी और साथ ही लंबाई वेटिंग लिस्ट भी फिर भी एक प्रशाद बेचने वाले ने उससे प्रशासन लेने की शर्त पर दो मिनट में ही टिकिट लाकर दे दिये और केबल कार में बिठा दिया ।मज़बूत मोटे तार पर केबल कार या कहें कि उड़ान खटोले एक के बाद एक ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर जा रहे थे । श्रीमती जी को ऊँचाई से हमेश दर लगता है जिसके कारण वे कभी ऊँचे झूले पर भी नहीं बैठती थी ।आज पहली बार कुछ हिम्मत कर उन्होंने बैठने का कुछ साहस किया ।एक केबल कार में कुल चार ही लोग बैठ सकते हैं।मैं श्रीमती जी के साथ ही रहा ताकि हम दोनों साथ साथ बैठ सकें।हमारा नंबर आने पर हम साथ ही उड़न खटोले में बैठे गए।केबल पर लटके ये उड़ान खगोल एक के बाद एक आ व जा रहे थे ।जैसे ही उड़ान खटोला /केबल कार ऊँचाई की ओर बढ़ा वैसे ही श्रीमती जी की धड़कने भी बढ़ गई ।ऊपर बढ़ते हुए प्रकृति के नजारों का आनंद लेते हुए कुछ दृश्य केमरे में क़ैद किए ।वास्तव मैं केबल कार में बैठ कर चारों तरफ़ के दृश्य बहुत ही सुंदर दिखाई दे रहे थे ।माँ गंगा का चारों तरफ़ फैला विशाल स्वरूप अपने आप में अनोखा ही था ।क्योंकि गंगा तट पर तो हमें लगता है कि हम जहां स्नान कर रहे हैं बस इतनी चौड़ाई में ही गंगा है लेकिन ऊपर केबल कार से देखने पर मालूम होता है कि बहुत दूर दूर तक माँ गंगा की अनेक धाराओं के रूप में बह रही ।माँ मनसा देवी के मंदिर में पहुँचे तो वहाँ बहुत भीड़ थी ।अंदर प्रवेश करते ही दो अलग अलग मूर्तियाँ अलग अलग स्थानों पर थी ।सभी उन्हें नमन कर प्रसाद अर्पित कर रहे थे तो लगा कि यही मुख्य मूर्ति हा kelin बाद में मालूम पड़ा कि मुख्य मंदिर आगे है ।अंत में मुख्य मंदिर के भी दर्शन किए साथ ही उसी परिसर में अन्य देवी देवताओं के भी दर्शन करते हुए हम वापस नीचे आये तो मालूम हुआ की अब चण्डी देवी लिए हमें कुछ दूर जाकर दूसरी केबल कार से जाना होगा ।लगभग 250-300 मीटर पैदल चलने के बाद एक स्थान पर सभी ने नींबू पानी पिया और पहुँच गये निश्चित स्थान पर यहाँ मालूम हुआ की अब हमें द्वारा अन्य स्थान पर था फिर वहाँ से केबल कार मिलेगी ।लगभग आधा घंटा हमें यहाँ बस की प्रतीक्षा करनी पड़ी।इस बीच भोजन लिए टूर ऑपरेटर का बार बार फ़ोन आ रहा था ।दोपहर के लगभग दो बज चुके थे ।लेकिन सभी चण्डी देवी दर्शन के बाद ही भोजन करने पर सहमत थे ।अत: सभी वहाँ उपलब्ध कराई गई बस द्वारा चण्डी देवी केबल कार वाले स्थान पहुँचे वहाँ पर एक बार फिर से केबल कार की सवारी कर मंदिर तक पहुँचे ।यहाँ पर ऊँचाई कुछ अधिक थी।भीड़ यहाँ मनसा देवी मंदिर कि अपेक्षा कम थी ।उसका कारण शायद यह रहो हो कि यह शहर से दूर भी है ।इसी के पास ही अंजनी माता कि मंदिर भी है ।अंजनी हनुमान की माता है ।
मनसा माता मंदिर ,चण्डी देवी और अंजनी माता के मंदिर के विषय में अनेक किवदंडतियाँ हैं। मनसा माता ,हरिद्वार के पंच तीर्थों में से एक है ।कहा जाता है कि यह भगवान शिव से उत्पन्न हुआ ।मनसा को नाग वासुकि की बहन माना जाता है ।यह मंदिर विल्व तीर्थ के नाम से भी जाना जाता है और यह शक्ति का स्वरूप है ।
चण्डी देवी मंदिर शिवालिक पहाड़ियों के पूर्वी शिखर पर नील पर्वत पर स्थित है जो हिमालय की सबसे दक्षिण वाली पर्वत शृंखला है ।इसका निर्माण कश्मीर के राजा सुचत सिंह ने 1929 में कराया था।वैसे यह भी माना जाता है कि मुख्य मूर्ति की स्थापना आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य द्वारा कराई गई ।यह हरिद्वार के पंच तीर्थों में से एक नील पर्वत तीर्थ के नाम से भी जाना जाता है ।
अंजनी माता के विषय में कहा जाता है की माता अंजनी ने इस स्थान पर तपस्या करके भगवान हनुमान को प्राप्त किया था ।इस स्थान पर भगवान विष्णु ने मंत्रों के द्वारा हनुमान को अंजनी के गर्भ में भेजा था ।यहाँ माता अंजनी के गर्भ में हनुमान बाल रूप में दिखते है ।कहते जो यहाँ पर बालक की कामना लेकर जाते हैं उनकी कोख माता आवश्यक ही भरती है ।यहाँ हनुमान जी माता अंजनी की कोख में लेते हुए हैं।
अब दोपहर के लगभग चार बज चुके थे और अब वापस हमारे विश्राम स्थल महाजन भवन पहुँच कर तुरंत भोजन किया और फिर शाम की गंगा आरती के लिए पुन: हर की पौढ़ी पहुँच गये । शाम को सवा छ: बजे आरती का समय रहता है ।सूर्यास्त हो चुका था लेकिन चारों तरफ़ विद्युत प्रकाश से अभी भी गंगा घाट जगमगा रहा था । घाट के दोनों तरफ़ अपार जान समूह ,सभी भक्ति भाव से अभिभूत माँ गंगा की आरती के लिए उत्सुक थे ।हम किसी तरह से आरती स्थल के बहुत क़रीब ही पहुँच गए और ठीक समय पर आरती प्रारंभ होते ही अनेकों दीपक लिए घाट पर कई पुजारी माँ गंगा की आरती करने लगे ।हर तरफ़ माँ गंगा के प्रति भक्तिभाव का दृश्य देख कर हर व्यक्ति स्वयं ही नतमस्तक हो रहा था ।शाम की गंगा आरती के बाद एक बार फिर दूसरे दिन सुबह भी साढ़े पाँच बजे हम प्रातः काल ली आरती के लिए पहुँच गए । एक बार इफ वही मनोरम दृश्य देखने को मिला ।एक बार फिर सुबह सूर्योदय के साथ ही गंगा स्नान का आनंद लिया ।
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